यह एक सामान्य प्रश्न जो कई लोग अक्सर पूछा करते हैं कि “मुसलमान प्रसाद क्यों नहीं खाते?” यह बहुत महत्वपूर्ण है कि इस प्रश्न को सही ढंग से समझा जाए क्योंकि बहुत से लोग इस बात (मुसलमानों द्वारा प्रसाद नहीं खाने की बात) को अन्य धर्मों के लोगों के प्रति अपमान, भेदभाव और असहिष्णुता के रूप में देखते हैं।
क्या एक शाकाहारी व्यक्ति आपके अनुरोध करने पर चिकन कबाब खाएगा?
स्पष्ट उत्तर है “नहीं”। क्या होगा अगर आप शाकाहारी वयक्ति को यह समझाने की कोशिश करते हैं कि आप केवल प्यार, सम्मान के लिए उन्हें चिकन कबाब खाने की पेशकश कर रहे हैं और आप उनके साथ सद्भाव से रहना चाहते हैं? आपके इस अनुरोध को सुनने के बाद क्या वे चिकन कबाब खाने की बात को स्वीकार कर लेंगे? नहीं, वे ऐसा नहीं करेंगे। यहाँ तक कि यह चिकन कबाब , अगर ख़ुद उसके ही धर्म के लोग भी उन्हें खाने को देंगे, तब भी वे इसे नहीं खाएंगे और विनम्रता से सामने वाले को समझाएंगे कि वे मांसाहारी भोजन नहीं करते और ऐसा करना उनके मान्यता के खिलाफ़ है।
यदि कोई यह तर्क देता है कि “शाकाहारियों को मांसाहारियों की भावनाओं का सम्मान करना चाहिए और इसलिए उन्हें चिकन कबाब खाने के अनुरोध को स्वीकार कर लेना चाहिए“, तो क्या आप इससे सहमत होंगे?
जब कोई शाकाहारी चिकन कबाब खाने से मना करता है तो क्या कोई इसे मांसाहारियों का भेदभाव या असहिष्णुता या अपमान कहना सही होगा? जवाब है बिलकुल नहीं” । इसमें कोई आश्चर्य नहीं है। हम मानते हैं कि अधिकांश शाकाहारी लोग अपने वैचारिक मान्यताओं की वजह से पशु आहार नहीं खाते हैं।
प्रत्येक समझदार व्यक्ति शाकाहारियों की वैचारिक स्थिति का सम्मान करता है और चिकन कबाब नहीं खाने के उनके निर्णय को भी ख़ुशी ख़ुशी स्वीकार करेगा। शाकाहारियों के लिए इस्तेमाल किए गए मानदंड और दिए गए विचार मुसलमानों पर भी लागू होने चाहिए।
मुसलमान भी अपने वैचारिक मान्यताओं के वजह से प्रसाद नहीं खाते
अगर आप सोच रहे हैं कि मुसलमान प्रसाद क्यों नहीं खाते हैं, तो ऐसा इसलिए है क्योंकि उनका मानना है कि ईश्वर ने उन्हें इसे खाने से मना किया है।
ईश्वर कुरान में कहते हैं:
उसने (अल्लाह ने) सिर्फ तुम पर हराम किया है, मरे हुए जानवरों का मांस, खून, सुअर का गोश्त और वह खाना जिस पर ख़ुदा के अलावा किसी और का नाम लिया गया हो।
कुरान अध्याय 2: आयत 173
उपरोक्त आयत यह स्पष्ट करती है कि मुसलमानों को ऐसा कोई भी भोजन नहीं खाना चाहिए जो देवताओं या संतों को भेंट या प्रसाद के रूप में चढ़ाया गया हो। जिस तरह एक शाकाहारी की वैचारिक मान्यता उसे मांसाहारी भोजन करने की अनुमति नहीं देता है, उसी तरह एक मुस्लिम की वैचारिक मान्यता उसे ईश्वर के अलावा किसी अन्य देवता या संतों को चढ़ाये गए चीज़ों को खाने की अनुमति नहीं देता है।
नोट: मुसलमानों को, दरगाहों में पीर और मजार पे चढ़ाया गया प्रसाद भी नहीं खाना चाहिए। उदाहरण: अजमेर दरगाह में चढ़ाई गई जर्दा पुलाव भी खाना गलत है। संत या पीर, चाहे वे कितने भी पवित्र क्यों न रहे हों, ईश्वर के बराबर नहीं हो सकते हैं। कुरान के मार्गदर्शन का पालन करने वाले मुसलमानों को जर्दा नहीं खाना चाहिए क्योंकि यह एक पीर को दी जाने वाली भेंट होती है। जैसा कि आप देख सकते हैं, इसका किसी विशेष धर्म से कोई लेना-देना नहीं है।

ऐसी वैचारिक मान्यता क्यों?
इस्लाम सिखाता है कि ईश्वर इस ब्रह्मांड का निर्माता है और वह सब जो इसके भीतर मौजूद है, समय और स्थान सहित सब ईश्वर की रचनाएँ हैं। इसलिए, ब्रह्मांड और उसके भीतर जो कुछ भी मौजूद है चूँकि ईश्वर ने उसे बनाया है इसलिए वह ईश्वर के बराबर नहीं हो सकता, क्योंकि ब्रह्मांड और जो कुछ भी इसके भीतर है (सूर्य, तारे, चंद्रमा, मनुष्य, पेड़ , नदी, ग्रह या एक वस्तु) किसी न किसी समय काल और स्थान तक ही सीमित है जबकि ईश्वर का आस्तित्व समूचे ब्रह्माण्ड और समय के आस्तित्व में आने से पहले से है और अनंत काल तक रहेगा।
इस्लाम यह भी सिखाता है कि यह वही ईश्वर सभी का निर्माता एक है, जिसके कोई माता-पिता, जीवनसाथी या बच्चे नहीं हैं, उसकी कोई कमज़ोरी नहीं है और उसके बराबर कोई नहीं है। मुसलमानों का मानना है कि कोई भी इकाई जिसमें ये विशेषताएँ नहीं हैं, वह ईश्वर नहीं हो सकता।
स्वाभाविक रूप से, इस्लाम ऐसे भोजन को जो एक संत(पीर) या देवता (जो ईश्वर की अवधारणा के मानदंडों को पूरा नहीं करता है) को चढ़ाए गया है, ईश्वर के अलावा किसी और को चढ़ाए गए भोजन के रूप में देखता है। इसलिए मुसलमानों को इसे खाने की इजाजत नहीं है। अब आपको यह स्पष्ट हो गया होगा कि मुसलमान प्रसाद क्यों नहीं खाते हैं।
इस्लाम में कोई भेदभाव नहीं
इस्लाम सभी धर्मों के लोगों के साथ सद्भाव से रहने की सलाह देता है। हम पैगंबर मुहम्मद के जीवन से कुछ उदाहरण देखेंगे।
एक यहूदी व्यक्ति ने पैगंबर मुहम्मद को जौ-की-रोटी और बासी पिघली हुई चर्बी के भोजन पर आमंत्रित किया और पैगंबर ने उनके निमंत्रण को स्वीकार कर लिया।
हदीस: मुसनद अहमद
उपरोक्त घटना उन असंख्य उदाहरणों में से एक है जो मुसलमानों को गैर-मुस्लिमों के निमंत्रण को स्वीकार करना और उनके द्वारा प्रस्तुत किए गए खाने को खाना सिखाता हैं। इतना ही नहीं, पैगंबर मुहम्मद ने लोगों को अपने पड़ोसियों के साथ भोजन साझा करने के लिए भी प्रोत्साहित किया।
पैगंबर मुहम्मद ने कहा:
जब आप कुछ अच्छा भोजन बनाते हो, तो अधिक बनाएं, ताकि आप अपने पड़ोसियों के साथ साझा कर सकें।
हदीस: सही मुस्लिम
इस्लाम मुसलमानों को गैर-मुस्लिमों का खाना खाने की इजाजत देता है और उन्हें उनके साथ खाना बांटने के लिए प्रोत्साहित भी करता है। इसीलिए आप अपने ऑफिस, मोहल्ले, स्कूल या कॉलेज में मुसलमानों को गैर-मुस्लिमों के साथ अपना खाना बांटते और गैर-मुस्लिमों द्वारा दिए गए खाने को खाते हुए भी देख सकते हैं। तो, ज़ाहिर है कि मुसलमान “प्रसाद” नहीं खा रहे हैं, यह निश्चित रूप से भेदभाव या अपमान या असहिष्णुता की बात नहीं है।
आप ख़ुद जांच कर सकते हैं
मुसलमानों को मिठाई या खाना (जो प्रसाद नहीं है) देने की कोशिश करें। वे इसे खुशी-खुशी खाएंगे और इसके लिए आपको धन्यवाद भी देंगे। यदि इरादा भेदभाव करना या आपका अपमान करना या असहिष्णु होना होता, तो उन्हें आपसे किसी भी प्रकार का भोजन नहीं लेना चाहिए, लेकिन निश्चित रूप से ऐसा नहीं है। वास्तव में, पैगंबर मुहम्मद ने लोगों को एक दूसरे को उपहार देने के लिए प्रोत्साहित किया। गिफ्ट में खाने की चीजें भी जरूर शामिल होती हैं।
पैगंबर मुहम्मद ने कहा:
एक दूसरे को उपहार दिया करें इससे आप एक दूसरे से प्यार करेंगे।
हदीस: अदब अल मुफ़रद
इस्लाम वैश्विक भाईचारा सिखाता है
इस्लाम सिखाता है कि सभी मनुष्य एक पुरुष और महिला (आदम और हव्वा) की संतान हैं और इसलिए, सभी मनुष्य, चाहे उनकी आस्था, राष्ट्रीयता, भाषा, त्वचा का रंग कुछ भी हो, मानवता में एक दुसरे के भाई-बहन हैं।
ईश्वर कुरान में कहते हैं:
हे मानव जाति! बेशक हमने तुम सबको एक मर्द और एक औरत से पैदा किया और तुम्हें अलग अलग क़ौम और क़बीले में बनाया ताकि तुम एक दूसरे को पहचान सको। निश्चित तौर पर परमेश्वर की दृष्टि में तुम में सबसे श्रेष्ठ और सम्मानित वही है जो तुम में सबसे अधिक नेक है।
कुरान अध्याय 49: आयत 13
जैसा कि आप देख सकते हैं, श्लोक यह स्पष्ट करता है कि चाहे हम किसी भी धर्म और विचारधारा का पालन करें, मानवता के रिश्ते में हम सभी भाई-बहन हैं। लोगों के बीच किसी भी तरह के भेदभाव के लिए बिल्कुल कोई जगह नहीं है।
पैगंबर मुहम्मद ने कहा:
किसी अरबी को किसी गैर अरबी पर और किसी गैर अरबी को किसी अरबी पर कोई श्रेष्ठता नहीं है। सफेद काले से श्रेष्ठ नहीं है, और काला सफेद से श्रेष्ठ नहीं है। व्यक्ति अपने उत्तम चरित्र से ही श्रेष्ठ हो सकता है।
हदीस: मुसनद अहमद
इस्लाम यह भी सिखाता है कि सभी मनुष्य एक समान पैदा होते हैं और कोई भी जन्म से श्रेष्ठ नहीं होता है। एक व्यक्ति अपने नेक कार्यों से ही महान और श्रेष्ठ बन सकता है। यह शिक्षा आज के समय के लिए भी अत्यंत प्रासंगिक है जिसमें हम रहते हैं क्योंकि आज भी हम अक्सर ऐसे लोगों के बारे में समाचार सुनते हैं जो उन लोगों द्वारा पकाए गए भोजन को खाने से मना करते हैं जिन्हें वे हीन समझते हैं। याद रखें, यहाँ केवल सामान्य भोजन की बात हो रही है जो किसी देवता को चढ़ाई गई भेंट नहीं है। यदि सामान्य भोजन के मामले में ऐसा है, तो कोई कल्पना कर सकता है कि किसी देवता को भेंट चढ़ाये गए भोजन के मामले में क्या होगा। एक सच्चा मुसलमान इस तरह के भेदभावपूर्ण प्रथाओं को कभी नहीं अपना सकता है, क्योंकि इस्लाम सिखाता है कि सभी इंसान समान हैं।
निष्कर्ष
- मुसलमान अपनी वैचारिक मान्यता के कारण प्रसाद नहीं खाते हैं। यह ठीक शाकाहारियों की वैचारिक मान्यता के समान है जो उन्हें मांसाहारी भोजन खाने से मना करता है।
- शाकाहारियों के लिए इस्तेमाल किए गए मानदंड और विचार मुसलमानों पर भी लागू होने चाहिए।
- इस्लाम सार्वभौमिक भाईचारा सिखाता है और सभी मनुष्यों को समान मानता है। इसलिए इस्लाम में भेदभाव के लिए बिल्कुल भी जगह नहीं है।
- मुसलमानों को गैर-मुसलमानों के साथ भोजन साझा करने और उनका भोजन खाने की अनुमति है।
- मुसलमानों का प्रसाद नहीं खाना भेदभाव या अपमान या असहिष्णुता की बात नहीं है।
- यहाँ तक कि दरगाहों में पीर और मजार पे चढ़ाए गए खाने को भी मुसलमान नहीं खा सकते। उदाहरण के लिए: अजमेर दरगाह में चढ़ाया गया जर्दा भी खाना ग़लत है।